महाभारत में दानवीर कर्ण एक ऐसा पात्र है जिनके साथ जन्म के साथ ही अन्याय होना शुरू हो गया था. क्षत्रिय राजवंश में जन्म लेने के बाद भी उन्हें आजीवन सूतपुत्र माना गया. जिसके कारण उन्हें कई बार अपमानित भी होना पड़ा. कर्ण की मृत्यु के बाद कुंती ने पांडव पुत्रों को अपने जीवन का सबसे बड़ा रहस्य बताया कि कर्ण उनकी पहली संतान थे, पांडवों में सबसे बड़े भाई युधिष्ठिर को जीवन में पहली बार अपनी माता पर क्रोध आया, जिन्होंने इतने वर्षों तक ये राज छुपा का रखा था. पांचों भाईयों को जब ये पता चला कि सूर्यपुत्र कर्ण उनके बड़े भाई थे तो सभी भाई की मृत्यु का शोक मनाने लगे.
युधिष्ठिर करना चाहते थे कर्ण का अंतिम संस्कार
युधिष्ठिर भ्रातृहत्या के अपराधबोध के कारण शोक में डूबे हुए थे. उन्होंने कर्ण के अंतिम संस्कार करने की इच्छा व्यक्त की. उन्होंने कहा कि कर्ण के अनुज होने के नाते उनका अधिकार और कर्तव्य है कि वो कर्ण को अंतिम विदाई दे.
लेकिन दूसरी तरफ कर्ण के धनिष्ठ मित्र दुर्योधन ने कर्ण के पार्थिव शरीर पर अपना अधिकार जताते हुए कहा कि उन्होंने जीवन के हर पड़ाव पर कर्ण का साथ दिया है, साथ ही दुर्योधन ने सदा ही दानवीर कर्ण के पराक्रम पर विश्वास किया. इस कारण उनका अधिकार है कि वो अपने अंगराज कर्ण का अंतिम संस्कार स्वंय अपने हाथों से करे.
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श्रीकृष्ण ने सुझाया मार्ग
कर्ण के अंतिम संस्कार के विषय में कृष्ण युधिष्ठिर और दुर्योधन दोनों के तर्क सुन रहे थे. समस्त मानवजाति को मार्ग दिखाने वाले कृष्ण ने मध्यस्थता निभाते हुए पांडव पुत्रों से कहते हैं कि दुर्योधन ने हमेशा ही कर्ण का साथ निभाया है. मान-सम्मान और विश्वास के साथ कर्ण को अपना मानकर एक योद्धा होने के नाते कर्ण को हर एक अधिकार दुर्योधन द्वारा दिए गए. जबकि कुंती या पांडवों ने कर्ण को एक योद्धा के रूप में भी कभी सम्मान नहीं दिया.
श्रीकृष्ण ने सत्य का ज्ञान देते हुए कहा कि किसी भी कारण से छोड़ने वाले से बड़ा, हमेशा स्वीकारने वाला होता है जो हमारे सभी अच्छे-बुरे रहस्य जानकर भी हमें अपनाता है, इसलिए दुर्योधन की मित्रता बहुत ही धनिष्ठ रही. इस कारण से कर्ण के अंतिम संस्कार करने का अधिकार दुर्योधन को ही मिलना चाहिए. इस प्रकार श्रीकृष्ण की बात स्वीकार करते हुए दुर्योधन ने कर्ण का अंतिम संस्कार किया…Next
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