भागवत गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं ‘आत्मा अजर, अमर है. आत्मा का नाश नहीं हो सकता. आत्मा केवल युगों-युगों तक शरीर बदलती है.’ आत्मा का देह त्याग करने के बाद भौतिक जीवन में बहुत-से संस्कार किए जाते हैं. जिनमें से एक है मृत्युभोज या तेरहवीं है. दशकों पहले मृत्यु होने पर केवल ब्राह्मणों को भोज करवाया जाता था लेकिन बदलते समय में समाज के साथ जुड़ाव या लोक-लज्जा के कारण भी लोग मृत्युभोज का आयोजन करते हैं.
अधिकतर लोग मृत्यु भोज के विषय में ये धारणा रखते हैं कि मृत्युभोज नहीं करना चाहिए. जबकि दूसरी तरफ कई लोग इसे संस्कार से जोड़कर देखते हैं. हिन्दू धर्म में मुख्य 16 संस्कार बनाए गए हैं, जिसमें प्रथम संस्कार गर्भाधान एवं अन्तिम तथा 16वां संस्कार अन्त्येष्टि है. इस प्रकार जब 17वां संस्कार बनाया ही नहीं गया तो 17वां संस्कार तेरहवीं संस्कार कहां से आ गया, लेकिन महाभारत की बात करें तो मृत्युभोज से जुड़ी हुई एक कहानी इसमें मिलती है.
जिसके अनुसार श्रीकृष्ण ने शोक की अवस्था में करवाए गए भोज को ऊर्जा का नाश करने वाला बताया है. महाभारत युद्ध होने को था. अतः श्री कृष्ण ने दुर्योधन के घर जा कर युद्ध न करने के लिए संधि करने का आग्रह किया, तो दुर्योधन द्वारा आग्रह ठुकराए जाने पर श्री कृष्ण को कष्ट हुआ और वह चल पड़े. दुर्योधन द्वारा श्रीकृष्ण से भोजन करने के आग्रह पर श्रीकृष्ण ने कहा कि ‘सम्प्रीति भोज्यानि आपदा भोज्यानि वा पुनैः’ अर्थात हे दुर्योधन – जब खिलाने वाले का मन प्रसन्न हो, खाने वाले का मन प्रसन्न हो, तभी भोजन करना चाहिए.
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लेकिन जब खिलाने वाले एवं खाने वालों के मन में पीड़ा हो, वेदना हो, तो ऐसी स्थिति में कदापि भोजन नहीं करना चाहिए. महाभारत के इस प्रसंग से बुद्धिजीवियों ने मृत्युभोज से जोड़कर देखा. जिसके अनुसार अपने किसी परिजन की मृत्यु के बाद मन में अथाह पीड़ा होती है, ऐसे में कोई भी प्रसन्नचित अवस्था में भोज का आयोजन नहीं कर सकता. वहीं दूसरी ओर मृत्युभोज में आमंत्रित लोग भी प्रसन्नचित होकर भोज में शामिल नहीं होते…Next
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