‘महाभारत’ को हिन्दू धर्म में महाकाव्य माना जाता है. महाभारत की अनगिनत कहानियों से और इसके पात्रों से हम आधुनिक युग में भी प्रेरणा ले सकते हैं. धर्म युद्ध पर आधारित इस काव्य से हम बहुत कुछ सीख सकते हैं. जैसा कि हम सभी जानते हैं कि महाभारत के युद्ध में श्रीकृष्ण ने पाडंवों का साथ दिया था जिसका कारण था कि पांडु पुत्र किसी वस्तु या राज-काज के लालच में नहीं बल्कि उनके लिए ये धर्मयुद्ध था. लेकिन क्या आप जानते हैं कि कौरवों द्वारा पाडंवों के साथ अनगिनत अन्याय करने के बाद भी श्रीकृष्ण कौरवों से उतने क्रोधित नहीं थे जितना क्रोध उन्हें गुरू द्रोणाचार्य और भीष्म पितामहा पर था. इसका कारण था कि कौरव तो प्रकृति से ही दुष्ट थे.
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उन्हें सत्य और धर्म का ज्ञान नहीं था इसलिए वो भोग विलास और सांसरिक वस्तुओं के पीछे भागते थे. लेकिन गुरू द्रोणाचार्य और भीष्म पितामहा दोनों को कई वेदों और पुराणों का ज्ञान था. ऐसे में धर्म का ज्ञान भली-भांति होते हुए भी वो मौन रहे और उन्होंने व्यक्तिगत कारणों से राजधर्म को अनदेखा किया. कुरुक्षेत्र के युद्ध के दौरान श्रीकृष्ण ने क्षणभर के लिए पूरी सृष्टि को रोक दिया था. समय वहीं रूक गया था. इस दौरान जो भी जीव जिस भी स्थिति में था वो वहीं रूक गया था. केवल श्रीकृष्ण और गुरू द्रोण गतिमान थे. अपने समीप श्रीकृष्ण को आते देख गुरू द्रोण समझ गए कि अवश्य ही उनसे कोई बहुत बड़ी गलती हुई है, जिसके कारण श्रीकृष्ण ने अपनी दिव्य शक्ति से सबकुछ रोक दिया है. श्रीकृष्ण ने गुरू द्रोण का अभिवादन करते हुए कहा ‘आपका जीवन सदैव ही दूसरों के लिए प्रेरणास्रोत रहा है.
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लेकिन जब धर्म को चुनने का समय आया तो आपने पुत्र मोह में पड़कर धर्म नहीं बल्कि चरित्रों (लोगों) का चुनाव किया. आपने अपने शिष्यों को कुशल शिक्षा तो दी लेकिन चरित्र और धर्म का ज्ञान नहीं दिया. आपने उन्हें कुशल योद्धा बनाने की दिशा में अपना शत- प्रतिशत दिया लेकिन उन्हें उत्तम मनुष्य बनाने के विषय में विचार तक नहीं किया. उन्हें धर्म का ज्ञान नहीं दिया. जिस कारण उनके लिए युद्ध का अर्थ केवल विजय-पराजय तक ही सीमित है.’ इस तरह गुरू द्रोण को अपने भूल का अनुभव हुआ. इसके अलावा श्रीकृष्ण ने भीष्म को भी धर्म का ज्ञान दिया. उन्होंने भीष्म से कहा ‘आपको सभी आपके नाम से अधिक ‘पितामहा’ की उपाधि से जानते हैं लेकिन आपने अपनी व्यक्तिगत प्रतिज्ञा के लिए राजकाज ही नहीं बल्कि धर्म का भी त्याग कर दिया.
जिस समय आपकी प्रजा को आपकी आवश्यकता थी उस समय आपने अपनी प्रतिज्ञा को सबसे ऊपर रखा. धर्म उन सभी प्रतिज्ञा से बढ़कर है अर्थात यदि धर्म और न्याय की स्थापना और रक्षा के लिए व्यक्तिगत हितों या प्रतिज्ञा को तोड़ भी दिया जाए तो उसे गलत नहीं कहा जा सकता. यदि आपने प्रथम दिन से ही न्याय और धर्म के लिए आवाज उठाई होती तो आज कुरुक्षेत्र का युद्ध नहीं होता. किंतु धर्म-अधर्म, न्याय-अन्याय का ज्ञान होते हुए भी आपने मौन रहना स्वीकार किया. श्रीकृष्ण की बात सुनकर भीष्म को अपराधबोध होने लगा और वो कृष्ण से अपने पाप के लिए क्षमा मांगने लगे. इस तरह श्रीकृष्ण ने दोनों को धर्म का ज्ञान कुरुक्षेत्र की धर्म भूमि पर दिया…Next
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