कार्तिक का महीना त्योहारों का महीना होता है. दीपावली के दीयों की लौ बुझते ही घरों में छठ के लोक-गीत बजने लगते हैं. बुनकर रात-दिन एक कर छठी व्रत रखने वालों के लिए बाँसों से बनी टोकरियाँ बनाने में जुटे रहते हैं. पूरे बाज़ार में नारियल और अन्य फलों की मात्रा बढ़ जाती है.
नदी अथवा पोखर के किनारे लोग अपने-अपने घाट के लिए स्थान चिन्हित कर लेते हैं. उन घाटों की सफाई से लेकर सजावट तक का काम घर के पुरूष सदस्य करते हैं जबकि महिलाएँ व्रत और अन्य विधानों को करने में जुट जाती है. छठ पर्व में उर्जा के असीमित स्रोत सूर्य की बूजा की जाती है. आस्था के प्रतीक इस पर्व से जुड़ी कई कहानियाँ हैं. आइए जानते हैं.
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एक मान्यता के अनुसार- महाभारत काल में कुंती-पुत्र कर्ण भगवान सूर्य के उपासक थे. वो घंटों कमर तक जल में खड़े होकर उनकी उपासना करते थे. उपासना के समय वो सूर्य को अर्घ्य चढ़ाते थे. उस समय से ही हमारे समाज में यह परंपरा चली आ रही है.
एक दूसरी मान्यता के अनुसार राजा प्रियंवद की कोई संतान नहीं थी. काफी प्रयासों के बाद भी जब उन्हें संतान की प्राप्ति नहीं हुई तो वो महर्षि कश्यप के पास अपनी समस्या लेकर पहुँचे. महर्षि कश्यप ने एक यज्ञ किया. यज्ञ की समाप्ति के बाद राजा की पत्नी मालिनी को प्रसाद स्वरूप खीर खाने के लिए दिया. इससे रानी गर्भवती हुई. परंतु उनके गर्भ से जन्म लेने वाला बच्चा मृत पैदा हुआ.
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राजा इससे आहत हुए और अपने मृत पुत्र का शरीर लेकर श्मशान चल पड़े. वहाँ वो पुत्र वियोग में प्राण त्यागने लगे. उसी समय वहाँ देवसेना नामक देवी प्रकट हुई. उसने राजा से उनका व्रत करने को कहा. राजा ने देवी की इच्छानुसार ही कार्तिक के महीने में व्रत किया. फलस्वरूप राजा को संतान की प्राप्ति हुई. फिर उस राजा ने नियम-निष्ठा से कार्तिक के महीने में यह व्रत करना आरंभ किया जो बाद में हमारी परंपरा में शामिल हो गई.
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