हिन्दू धार्मिक पुराणों में किसी को भी धोखा देना या झूठ बोलना सबसे बड़े अपराधों में से एक माना गया है. वैसे तो गरुड़पुराण के अनुसार जो व्यक्ति जैसा कर्म करता है उसी अनुसार फल प्राप्त करता है. लेकिन अनजाने में या फिर छोटे से छोटे अपराध का फल भी हमें इसी जीवन में कभी न कभी मिलता ही है. इसलिए ये कहा जाता है कि सभी मानवों को किसी भी व्यक्ति के साथ छल-कपट नहीं करना चाहिए. हमारे द्वारा किए गए बुरे आचरण का फल हमें भगवान नहीं बल्कि प्रकृति से मिलता है.
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श्रीकृष्ण और सुदामा की ऐसी ही कहानी भागवतपुराण में वर्णित है. जिसमें सुदामा ने बालपन में अज्ञानवश श्रीकृष्ण से झूठ बोला था. कहा जाता है मित्र के रूप में अपने परम सखा श्रीकृष्ण के साथ छल करने का परिणाम सुदामा को युवा होने पर मिला था. ऐसा भी कहा जाता है कि श्रीकृष्ण के साथ अन्याय करने का दंड सुदामा को घोर गरीबी के रूप में मिला. सुदामा और श्रीकृष्ण की शिक्षा-दीक्षा एक ही गुरुकुल में हुई थी. एक दिन बहुत तेज वर्षा हो रही थी. इस दौरान श्रीकृष्ण और सुदामा गुरुकुल से बाहर कहीं जा रहे थे. वर्षा थमने का नाम ही नहीं ले रही थी. वर्षा के प्रभाव से बचने के लिए कृष्ण और सुदामा एक ऊंचे पेड़ पर चढ़ गए. धीरे-धीरे रात होने लगी पर वर्षा नहीं रूकी. सुदामा कृष्ण से ऊपर वाली शाखा पर बैठे थे जबकि कृष्ण नीचे शाखा पर बैठकर वर्षा थमने का इंतजार कर रहे थे.
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इतने में सुदामा को भूख लगने लगी. सुदामा को याद आया कि गुरुकुल से लाए हुए थैले में कच्चे चावल और चने रखे हैं. भूख ने सुदामा को इतना व्याकुल कर दिया था कि वो कुछ भी सोचने-समझने की स्थिति में नहीं थे. उन्होंने चावल-चने के दाने खाने शुरू कर दिए. चबाने की ध्वनि सुनकर श्रीकृष्ण ने सुदामा से प्रश्न करने लगे कि ये चबाने की ध्वनि कहां से आ रही है? ये सुनकर सुदामा बोले ‘मित्र ठंड के कारण मेरे दांत किटकिटा रहे हैं, मुझे कंपकपी छूट रही है.’ भगवान श्रीकृष्ण तो सब कुछ पहले से जानते थे. अपने मित्र के भोलेपन से भरी बातें सुनकर वो मन ही मन मुस्कुरा दिए. सुदामा अपना हिस्सा पहले ही खा चुके थे. परंतु कुछ देर बाद उन्हें फिर से भूख ने व्यथित कर दिया. इस बार उन्होंने अपने मित्र का हिस्सा भी बड़ी चतुराई के साथ खा लिया. श्रीकृष्ण ने सुदामा से फिर से वही प्रश्न किया. सुदामा ने वही उत्तर एक बार फिर से दोहरा दिया.
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कहते हैं श्रीकृष्ण का हिस्सा छल के साथ खा जाने पर सुदामा को घोर दरिद्रता का सामना करना पड़ा था. उनकी इस दशा में सुधार उस दिन आया जब वो श्रीकृष्ण से मिलने भेंट स्वरूप चावल के दानों के साथ गए. श्रीकृष्ण ने अपने बचपन के मित्र को देखकर गले से लगा लिया और चावल के दानों को बड़े प्रेम से ग्रहण किया. श्रीकृष्ण के चावल के दाने ग्रहण करते ही सुदामा की सारी दरिद्रता एक पल में दूर हो गई. ये देखकर रुक्मणि ने श्रीकृष्ण से सुदामा द्वारा बचपन में किए गए अपराध के दंड के बारे में पूछा. तो श्रीकृष्ण ने मुस्कुराते हुए कहा ‘मैं कभी भी अपने भक्तों या प्रियजनों को दंड दे ही नहीं सकता. क्योँकि इससे मुझे ही पीड़ा होती है. कर्मो का फल तो नियति के हाथ में है. मैंने तो अपने मित्र को उसी दिन क्षमा कर दिया था. परंतु नियति या प्रकृति सबके लिए एक समान है…Next
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