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तनावमुक्ति का ज्ञानमंत्र है श्रीमद्भगवद्गीता

हमारी रोजमर्रा की जिंदगी में दूसरों के साथ टकराव होना, तनाव का सबसे बड़ा कारण है. प्रत्येक दो लोगों के बीच होने वाले टकराव का मूल कारण है कि एक व्यक्ति, दूसरे पर अपना स्वामित्व रखना चाहता है या दूसरे शब्दों में कहें कि अपना नियंत्रण रखना चाहता है. ऐसा इसलिए होता है कि कोई एक व्यक्ति अपना नजरिया,प्रभाव, विचार या विश्वास, दूसरे पर डालना चाहता है. इसे हम विश्व में होने वाले प्रत्येक संघर्ष में देख सकते हैं. फिर चाहे बात पति और पत्नी की हो, बच्चे और माता-पिता के बीच, सास-बहू के बीच, दोस्तों के बीच, मालिक और कर्मचारी के बीच, बिजनेस पार्टनर्स के बीच, दो समुदायों के बीच और यहां तक की दो राष्ट्रों के बीच टकराव की बात ही क्यों न हो.


यहां भगवान कृष्ण हमारी सामान्य मानवीय इच्छाओं जैसे- जीना, प्यार, प्यार किया जाना, खाना, सोना, कपड़े और मनोरंजन के संदर्भ में बात नहीं कर रहे. यहां स्वार्थ से मतलब है जैसे कि दुर्योधन की अंध महत्वकांक्षा. चलिए इसे हम अपनी रोजाना की जिंदगी से जोड़कर देखते हैं:


Lord krishna-arjuna


1. किसी भी व्यक्ति से जरूरत से ज्यादा लगाव होना. एक मां, जो रोजाना गीता-पाठ करती है, उसे अपने पुत्र से बहुत लगाव है, मां बेटे की शादी होने के बाद भी हर संभव कोशिश करती है कि बेटे के साथ ज्यादा से ज्यादा समय बिताएं, बेटा जानता है कि यह बात उसकी पत्नी और मां के बीच में तनाव पैदा कर रही है. वह चाहकर भी इस विषय में अपनी पत्नी की तरफ नहीं हो सकता, क्योंकि वह धर्मसंकट में हैं कि क्या सही है और क्या गलत. वह बेटा अपनी मां को खोना नहीं चाहता. मां भी बेटे के जीवन को दुखी नहीं करना चाहती, लेकिन पुत्र से अत्यधिक मोह, सारे तनाव का कारण बन रहा है. ठीक ऐसा ही तब होता है,जब दो दोस्तों के बीच में कोई तीसरा आ जाता है,वहां ईर्ष्या जन्म लेती है.


2. पैसे से अत्यधिक लगाव भी स्वार्थ को जन्म देता है. पैसे के लालच में इंसान सब सही,गलत भूल जाता है, फिर चाहे उसे उस पैसे को ठीक तरह से खर्च करना भी न आता हो. यह लालच शरीर में जमा होने वाले फैट की ही तरह है.


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3. अपनी सत्ता, पॉवर , पोजिशन और टाइटल से अत्यधिक लगाव भी स्वार्थ ही है. यही से गंदी राजनीति शुरू होती है. सत्ता की लोलुपता को हम प्रत्येक आर्गेनाइजेशन में देख सकते हैं. लोग अपना स्टेट्स बनाने के लिए, अपनी कुर्सी बचाने के लिए किसी भी हद तक गिर जाते हैं और तब विवेकहीन होकर कार्य करते हैं.यहां आपको ध्यान देना है कि कब दूर चले जाना है, कब भाग जाना है यानि एक ‘’स्वार्थ से परे’’ की सोच रखनी है, इसे निष्कर्म भी कह सकते हैं.


4. खाना, सेक्स, दवाईयां,शराब, जुआ इत्यादि से भी अत्यधिक लगाव स्वार्थपरता को जन्म देता है. तनावरहित मनुष्य इन चीजों से दूर रहता है और सांत्वना में जीता है, जबकि इन स्वार्थों में लिप्त मानव को हार्ट अटैक, लिवर, मधुमेह, आर्थराइटिस इत्यादि हो जाती है, यहां तक कि मनुष्य जरूरत से ज्यादा शराब का सेवन करने लगता है तो उसे लीवर,पेट और दिल की बीमारियां घेर लेती है.


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5. भौतिक वस्तुओं से ज्यादा लगाव होना, जैसे- घर, कार, गोल्ड, जूलरी, गैजेट्स इत्यादि भी स्वार्थपरता की जनक है. तुलना और प्रतिस्पर्धा भी तनाव को जन्म देती है. जबकि अगर यह सोचा जाएं कि सामने वाले को जो भी मिला है,उसके साथ मैं खुश हूं. एक स्वतंत्र व्यवहार कहता है कि ‘’ लोग मेरे बारे में और मेरी आर्थिक स्थिति के विषय में क्या सोचते हैं, इससे मुझे फर्क नहीं पड़ता’’.Next…

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