वृन्दावन को अक्सर लोग कृष्ण की नगरी के रूप में पहचानते हैं पर इस शहर में स्थित एक गणेश मंदिर की बड़ी मान्यता है. इस मान्यता के पीछे यहां प्रतिष्ठित गणेश जी की मूर्ति का विचित्र इतिहास है जिसके बारे में जानकर एक बार में यकीन करना मुश्किल है. गणेश जी की इस मूर्ति की जयपुर से चलकर इंग्लैंड और इंग्लैंड से कोलकाता होते हुए वृंदावन तक पहुंचने की रोचक यात्रा औऱ इसके पीछे के इतिहास को जानकर हतप्रभ रह जाना लाजमी है.
डब्लू. आर. यूल नाम का एक अंग्रेज कलकता में मेसर्स एटलस इंस्योरेंस कंपनी में सेक्रेटरी था. इनकी पत्नी श्रीमती यूल ने सन् 1911-12. में जयपुर से गणपति की मूर्ति खरीदी, और इंग्लैंड में अपने घर में उनकी प्रतिमा को सजा दिया. उनके मित्रों ने गणेशजी की प्रतिमा को देखकर उनसे पूछा-‘यह क्या है?’ श्रीमती यूलने उत्तर दिया- “यह हिंदुओं का सूंडवाला देवता है”. उनके मित्रों ने गणेशजी की मूर्ति को मेज पर रखकर उनका उपहास किया. किसी ने गणपति के मुख के पास चम्मच लाकर पूछा- “इसका मुंह कहां है?” रात्रि में श्रीमती यूलकी की पुत्री को ज्वर हो गया और वह अपने तेज ज्वर में चिल्लाने लगी, “हाय ! सूंडवाला खिलौना मुझे निगलने आ रहा है.” वह रात-दिन यही शब्द दुहराती रही एवं अत्यंत भयभीत हो गयी.
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श्रीमती यूलन यह सब वृत्तांत अपने पति को लिखकर कलकत्ता भेजा. उनकी पुत्री को किसी भी दवा से लाभ नहीं हो पा रहा था एक दिन श्रीमती यूलने स्वप्न में देखा कि सूर्यास्त के समय अचानक एक घुंघराले बाल और मशाल-सी जलती आंखों वाला पुरुष हाथ में भाला लिये, बैल पर सवार होकर उनकी ओर आता है और कहता है कि- ‘मेरे पुत्र को तत्काल भारत भेज दो अन्यथा मैं तुम्हारे सारे परिवार का नाश कर दूंगा.’ वे अत्यधिक भयभीत होकर जाग उठीं. दूसरे दिन प्रातः ही उन्होंने उस खिलौने का पार्सल बनाकर पहली डाक से ही अपने पति के पास भारत भेज दिया.
यूल साहब को पार्सल मिला और उन्होंने श्रीगणेश जी की प्रतिमा को कंपनी के कार्यालय में रख दिया. कार्यालय में गणेशजी की मूर्ति तीन दिन रही, पर उन तीन दिनों तक कार्यालय में सिद्ध-गणेश के दर्शनार्थ कलकता के नर-नारियों की भीड़ लगी गई. जिससे कार्यालय का सारा कार्य रूक गया. यूल ने अपने अधीनस्थ इंस्योरंस एजेंट श्रीकेदारबाबू से पूछा कि ‘इस देवता का क्या करना चाहिये? अंत में केदारबाबू गणेशजी को अपने घर ले आए एवं वहां उनकी पूजा प्रारंभ करवा दी. लोग अब श्रीकेदारबाबू घर पर जाने लगे.
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इधर वृन्दावन में स्वामी केशवानंदजी महाराज कात्यायनी देवी की पंचायतन पूजन-विधि से प्रतिष्ठा के लिये सनातन धर्म की पांच प्रमुख मूर्तियों का प्रबंध कर रहे थे. श्रीकात्यायनी-देवी की अष्टधातु से निर्मित मूर्ति कलकता में तैयार हो रही थी तथा भैरव चन्द्रशेखर की मूर्ति जयपुर में बन गयी थी. जब महाराज गणेशजी की प्रतिमा के विषय में विचार कर रहे थे, तब उन्हें मां का स्वप्नदेश हुआ कि “सिद्ध-गणेश की एक प्रतिमा कलकता में केदारबाबू के घर पर है. जब तुम कलकता से मेरी प्रतिमा लाओ, तब मेरे साथ मेरे पुत्र को भी लेते आना.” अतः स्वामी श्रेकेशवानंदजी ने अन्य चार मूर्तियों के बनने पर गणपति की मूर्ति बनवाने का प्रयत्न नहीं किया.
जब स्वामी श्रीकेशवानंदजी श्रीकात्यायनी मां की अष्टधातु की मूर्ति लाने के लिये कलकता गए, तब केदारबाबू ने उनके पास आकर कहा- ”गुरुदेव ! मैं आपके पास वृन्दावन ही आने का विचार कर रहा था. मैं बड़ी विपत्ती में हूं. मेरे पास पिछले कुछ दिनों से गणेशजी की एक प्रतिमा है. प्रतिदिन रात्रि को स्वप्न में वे मुझसे कहते हैं कि ‘जब श्रीकात्यायनी मां की मूर्ति वृन्दावन जायेगी तो मुझे भी वहां भेज देना.’ कृपया इन्हें स्वीकार करें।” स्वामी श्रीकेशवानंदजी ने मुस्कराते हुए कहा- ‘बहुत अच्छा, तुम वह मूर्ति स्टेशन पर ले आना. जब मां जायगी तो उनका पुत्र भी उनके साथ ही जाएगा. सिद्ध गणेशजी की यही मूर्ति भगवती कात्यायनीजीके राधाबाग मंदिर में प्रतिष्ठित है. Next…
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