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रामायण के जामवंत और महाभारत के कृष्ण के बीच क्यों हुआ युद्ध

पौराणिक कथाओं के अनुसार एक बार सत्राजित ने भगवान सूर्य की उपासना की जिससे प्रसन्न होकर उन्होंने अपनी स्यमन्तक नाम की मणि उसे दे दी. एक दिन जब कृष्ण साथियों के साथ चौसर खेल रहे थे तो सत्राजित स्यमन्तक मणि मस्तक पर धारण किए उनसे भेंट के लिए चले आ रहे थे. कृष्ण के मित्रों ने उन्हें कहा,’हे वासुदेव! लगता है आपसे मिलने स्वयं सूर्यदेव आ रहे हैं.’ कृष्ण ने उन्हें  सत्राजित और स्यमन्तक के प्राप्ति की कहानी सुनाई, तब तक सत्राजित वहाँ पहुँच चुके थे. कृष्ण के साथियों ने सत्राजित से कहा, ‘अरे मित्र! तुम्हारे पास यह अलौकिक मणि है. इनका वास्तविक अधिकारी तो राजा होता है. इसलिए तुम इस मणि को हमारे राजा उग्रसेन को दे दो. यह बात सुन सत्राजित बिना कुछ बोले ही वहाँ से उठ कर चला गया. सत्राजित ने स्यमन्तक मणि को अपने घर के मन्दिर में स्थापित कर दिया. वह मणि उसे आठ भार सोना देती थी. जिस स्थान में वह मणि होती थी वहाँ के सारे कष्ट स्वयं ही दूर हो जाते थे.


Jambavan



एक दिन सत्राजित का भाई प्रसेनजित उस मणि को पहन कर घोड़े पर सवार हो आखेट के लिये गया। वन में प्रसेनजित पर एक सिंह ने हमला कर दिया जिसमें वह मारा गया. सिंह अपने साथ मणि भी ले कर चला गया. उस सिंह को ऋक्षराज जामवंत ने मारकर वह मणि प्राप्त कर ली और अपनी गुफा में चला गया. जामवंत ने उस मणि को अपने बालक को दे दिया जो उसे खिलौना समझ उससे खेलने लगा. जब प्रसेनजित लौट कर नहीं आया तो सत्राजित ने समझा कि उसके भाई को कृष्ण ने मारकर मणि छीन ली है. कृष्ण जी पर चोरी के सन्देह की बात पूरे द्वारिकापुरी में फैल गई. अपने उपर लगे कलंक को धोने के लिए वे नगर के प्रमुख यादवों को साथ ले कर रथ पर सवार हो स्यमन्तक मणि की खोज में निकले. वन में उन्होंने घोड़ा सहित प्रसेनजित को मरा हुआ देखा पर मणि का कहीं पता नहीं चला. वहाँ निकट ही सिंह के पंजों के चिन्ह थे. सिंह के पदचिन्हों के सहारे आगे बढ़ने पर उन्हें मरे हुए सिंह का शरीर मिला.


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वहाँ पर रीछ के पैरों के पद-चिन्ह भी मिले जो कि एक गुफा तक गये थे. जब वे उस भयंकर गुफा के निकट पहुँचे तब श्री कृष्ण ने यादवों से कहा कि तुम लोग यहीं रुको. मैं इस गुफा में प्रवेश कर मणि ले जाने वाले का पता लगाता हूँ. इतना कहकर वे सभी यादवों को गुफा के मुख पर छोड़ उस गुफा के भीतर चले गये. वहाँ जाकर उन्होंने देखा कि वह मणि एक रीछ के बालक के पास है जो उसे हाथ में लिए खेल रहा था. श्री कृष्ण ने उस मणि को उठा लिया. यह देख कर जामवंत अत्यन्त क्रोधित होकर श्री कृष्ण को मारने के लिये झपटा. जामवंत और श्री कृष्ण में भयंकर युद्ध होने लगा. जब कृष्ण गुफा से वापस नहीं लौटे तो सारे यादव उन्हें मरा हुआ समझ कर बारह दिन के उपरांत वहाँ से द्वारिकापुरी वापस आ गये तथा समस्त वृतांत वासुदेव और देवकी से कहा. वासुदेव और देवकी व्याकुल होकर महामाया दुर्गा की उपासना करने लगे. उनकी उपासना से प्रसन्न होकर देवी दुर्गा ने प्रकट होकर उन्हें आशीर्वाद दिया कि तुम्हारा पुत्र तुम्हें अवश्य मिलेगा.



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श्री कृष्ण और जामवंत दोनों ही पराक्रमी थे. युद्ध करते हुये गुफा में अट्ठाईस दिन बीत गए. कृष्ण की मार से महाबली जामवंत की नस टूट गई. वह अति व्याकुल हो उठा और अपने स्वामी श्री रामचन्द्र जी का स्मरण करने लगा. जामवंत के द्वारा श्री राम के स्मरण करते ही भगवान श्री कृष्ण ने श्री रामचन्द्र के रूप में उसे दर्शन दिये. जामवंत उनके चरणों में गिर गया और बोला, “हे भगवान! अब मैंने जाना कि आपने यदुवंश में अवतार लिया है.” श्री कृष्ण ने कहा, “हे जामवंत! तुमने मेरे राम अवतार के समय रावण के वध हो जाने के पश्चात मुझसे युद्ध करने की इच्छा व्यक्त की थी और मैंने तुमसे कहा था कि मैं तुम्हारी इच्छा अपने अगले अवतार में अवश्य पूरी करूँगा. अपना वचन सत्य सिद्ध करने के लिये ही मैंने तुमसे यह युद्ध किया है.” जामवंत ने भगवान श्री कृष्ण की अनेक प्रकार से स्तुति की और अपनी कन्या जामवंती का विवाह उनसे कर दिया.


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कृष्ण जामवंती को साथ लेकर द्वारिका पुरी पहुँचे. उनके वापस आने से द्वारिका पुरी में चहुँ ओर प्रसन्नता व्याप्त हो गई. श्री कृष्ण ने सत्राजित को बुलवाकर उसकी मणि उसे वापस कर दी. सत्राजित अपने द्वारा श्री कृष्ण पर लगाये गये झूठे कलंक के कारण अति लज्जित हुआ और पश्चाताप करने लगा. प्रायश्चित के रूप में उसने अपनी कन्या सत्यभामा का विवाह श्री कृष्ण के साथ कर दिया और वह मणि भी उन्हें दहेज में दे दी. किन्तु शरणागत वत्सल श्री कृष्ण ने उस मणि को स्वीकार न करके पुनः सत्राजित को वापस कर दिया.




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