भारत को हमेशा से ही चमत्कारों का देश कहा जाता रहा है. यहां हर दूसरी राह पर आपका सामना कुछ ऐसे चमत्कारों से होता है जो आपको अचंभित करने के लिए काफी हैं. कुछ ऐसे ही चमत्कार या दूसरी भाषा में कहें तो लोगों के विश्वास के प्रतीक की एक कहानी हम आपको यहां बताने जा रहे हैं. यह किसी इंसान, जानवर या वस्तु की नहीं, बल्कि एक वृक्ष की कहानी है.
जी हां, उत्तरप्रदेश के बाराबंकी जिला मुख्यालय से 38 किलोमीटर की दूरी पर एक छोटा सा गांव किंटूर स्थित है. कहते हैं इस गांव का नाम पाण्डवों की माता कुंति के नाम पर रखा गया था और इसी स्थान पर पाण्डवों ने कुंति के साथ अपना अज्ञातवास बिताया था. इसी गांव में एक ऐसा वृक्ष है जिसकी कहानी दूर-दूर तक लोकप्रिय है. परिजात वृक्ष का नाम तो आपने सुना ही होगा, लेकिन यह कोई ऐसा-वैसा परिजात वृक्ष नहीं है, बल्कि मान्यता है कि वृक्ष को जो भी छू लेता है उसकी थकान पल भर में छूमंतर हो जाती है.
क्यों है यह वृक्ष इतना अलग?
यूं तो परिजात वृक्ष का किसी जगह पर होना कोई बहुत बड़ी बात नहीं है, यह देखने में किसी भी साधारण वृक्ष की ही तरह होता है लेकिन किंटूर गांव का यह परिजात वृक्ष कुछ खास है. एक सामान्य परिजात वृक्ष की ऊंचाई 10 से 25 फीट ही होती है लेकिन किंटूर के इस वृक्ष की ऊंचाई लगभग 50 फीट है. इतना ही नहीं, यह इकलौता परिजात वृक्ष है जिस पर ना तो बीज लगते हैं और ना ही इसकी किसी भी कलम को बोने से दूसरा वृक्ष लगता है.
इस अद्भुत वृक्ष पर फूल जरूर खिलते हैं लेकिन वे भी रात के समय और सुबह होते-होते वे सब मुरझा जाते हैं. इन फूलों को खासतौर पर लक्ष्मी पूजन के लिए इस्तेमाल किया जाता है लेकिन केवल वही फूलों को इस्तेमाल किया जाता है जो अपने आप पेड़ से टूटकर नीचे गिर जाते हैं, क्योंकि इस पेड़ से फूलों को तोड़ने की मनाही है.
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कहां से आया यह वृक्ष?
हरिवंश पुराण में परिजात वृक्ष का एक खास वर्णन है जिससे हमें इस वृक्ष का इतिहास ज्ञात होता है. पुराणों में इस वृक्ष को कल्पवृक्ष कहा गया है और यह मान्यता है कि यह वृक्ष समुन्द्र मंथन से उत्पन्न हुआ था. इस वृक्ष को इंद्र स्वर्गलोक ले गए और इसे कवल छूने से ही वहां देव नर्तकी उर्वशी की सारी थकान दूर हो जाती थी.
लेकिन फिर किंटूर कैसे पहुंचा यह वृक्ष?
पुराणों में एक कथा विख्यात है जिसके अनुसार एक बार देवऋषि नारद श्री कृष्ण से मिलने धरती पर पधारे थे. उस समय उनके हाथों में परिजात के सुन्दर पुष्प थे और उन्होंने वे पुष्प श्री कृष्ण को भेंट में दे दिए. कृष्ण ने वे पुष्प साथ में बैठी अपनी पत्नी रुक्मणी को सौंप दिए लेकिन जब ये बात कृष्ण की दूसरी पत्नी सत्यभामा को पता लगी तो वो क्रोधित हो उठी और कृष्ण से अपनी वाटिका के लिए परिजात वृक्ष की मांग की.
कृष्ण के समझाने पर भी भामा का क्रोध शांत नहीं हुआ और अंत में अपनी पत्नी की जिद के सामने झुकते हुए उन्होंने अपने एक दूत को स्वर्गलोक में परिजात वृक्ष को लाने के लिए भेजा पर उनकी यह मांग पर इंद्र ने इंकार कर दिया और वृक्ष नहीं दिया. जब इस बात का संदेश कृष्ण तक पहुंचा तो वे रोष से भर गए और इंद्र पर आक्रमण कर दिया. युद्ध में कृष्ण ने विजय प्राप्त की और इंद्र से परिजात वृक्ष ले आए. पराजित इंद्र ने क्रोध में आकर परिजात वृक्ष पर कभी भी फल ना आने का श्राप दिया इसीलिए इस वृक्ष पर कभी भी फल नहीं उगते.
वादे के अनुसार कृष्ण ने उस वृक्ष को लाकर सत्यभामा की वाटिका में लगवा दिया लेकिन उन्हें सबक सिखाते हुए कुछ ऐसा किया जिस कारण रात को वृक्ष पर पुष्प तो उगते थे लेकिन वे उनकी पहली पत्नी रुक्मणी की वाटिका में ही गिरते थे. इसीलिए आज भी जब इस वृक्ष के पुष्प झड़ते भी हैं तो पेड़ से काफी दूर जाकर गिरते हैं.
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पाण्डवों से क्या संबंध है इस वृक्ष का?
अज्ञातवास भोग रहे पाण्डव माता कुंती के साथ एक गांव में आए जहां उन्होंने एक शिव मंदिर की स्थापना की ताकि उनकी माता अपनी इच्छानुसार पूजा अर्चना कर सकें. पुराणों में विख्यात कथा में यह वर्णन किया गया है कि माता कुंति के लिए ही पाण्डव सत्यभामा की वाटिका से परिजात वृक्ष को ले आए थे क्योंकि इस वृक्ष के पुष्पों से माता कुंति शिव की पूजा करती थीं. इस तरह से स्वर्गलोक से आया वृक्ष इस छोटे से गांव का हिस्सा बन गया.
लेकिन परिजात तो एक राजकुमारी थी…
इस अद्भुत वृक्ष से संबंधित एक और कहानी काफी प्रचलित है जिसके अनुसार यह कहा गया है कि एक समय था जब ‘परिजात’ नाम की एक राजकुमारी हुआ करती थी. उस राजकुमारी को भगवान सूर्य से प्रेम हो गया था लेकिन उसके अनेक प्रयासों के बाद भी भगवान सूर्य ने उसके प्रेम को अस्वीकार कर दिया.
सूर्य देवता से क्रोधित होकर राजकुमारी ने आत्महत्या कर ली और कहते हैं कि जिस स्थान पर परिजात की क़ब्र बनाई गई वहीं एक वृक्ष की उत्पत्ति हुई जिसका नाम ‘परिजात वृक्ष’ रखा गया.
महत्वपूर्ण है यह वृक्ष
लोगों के अति विश्वास और इस वृक्ष की महानता को देखते हुए सरकार ने भी इस ऐतिहासिक परिजात वृक्ष को संरक्षित घोषित कर दिया है. केंद्रीय सरकार द्वारा इस वृक्ष के नाम पर एक डाक टिकट भी बनाया गया है.
गुणों से भरपूर है ये वृक्ष
ना केवल स्वर्गलोक या पृथ्वीलोक की मान्यताओं में इस वृक्ष को ऊंचा स्थान मिला है बल्कि अब तो आयुर्वेद ने भी स्वंय इसे ऊंची पद्वी दी है. आयुर्वेद में परिजात वृक्ष को हारसिंगार कहा जाता है और इसके फूल, पत्ते और छाल का उपयोग विभिन्न औषधियां बनाने के लिए किया जाता है.
कहते हैं कि इसके पत्तों का सबसे अच्छा उपयोग सायटिका रोग को दूर करने के लिए किया जाता है और साथ ही इसके फूल हृदय रोगियों के लिए उत्तम हैं. यदि किसी को हृदय संबंधित कोई कठिनाई है तो अगर वो कम से कम एक माह तक इस वृक्ष के फूलों का किसी भी रूप में सेवन कर लेगा तो उसकी सारी परेशानी दूर हो जाएगी.
इसके साथ ही परिजात की पत्तियों का इस्तेमाल खास तरह का हर्बल तेल बनाने के लिए किया जाता है. इसके अलावा स्त्रियां यदि परिजात की कोंपल को पांच काली मिर्च के साथ मिलाकर इसका सेवन करें तो उनके सारे रोग मिट जाएंगे.
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