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गांधारी के शाप के बाद जानें कैसे हुई भगवान श्रीकृष्ण की मृत्यु

महाभारत पर आधारित अधिकांश पौराणिक कथाओं की माने तो महाभारत की सभी घटनाओं के लिए भगवान श्रीकृष्ण को ही जिम्मेदार माना गया है. उन्होंने ही धर्म की संस्थापना के लिए महाभारत युद्ध को होने दिया लेकिन ऐसा करने के बाद अर्थात हस्तिनापुर में धर्म की संस्थापना के बाद भगवान श्रीकृष्ण ने क्या खोया यह आज भी लोगों के लिए जिज्ञासा का विषय है.


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गांधारी का शाप

युद्ध के बाद महर्षि व्यास के शिष्य संजय ने जब गांधारी को इस बात की जानकारी दी कि अपने साथियों के साथ पांडव हस्तिनापुर में दस्तक दे चुके हैं तो उनका दुखी मन गम के सागर में गोते लगाने लगा, सारी पीड़ा एकदम से बाहर आ गई. उनका मन प्रतिशोध लेने के लिए व्याकुल हो रहा था इसके बावजूद भी वह शांत थी, लेकिन जब उन्हें यह पता चला कि पांडवों के साथ भगवान श्रीकृष्ण भी है तो वह आग बबूला हो गईं. वह सभा में जाकर श्रीकृष्ण पर क्रोधित होने लगी और कहा कि “तुम्हे विष्णु का अवतार कहा जाता है, तुम्हारी भगवान की तरह पूजा की जाती है लेकिन जो तुमने काम किया है वह काफी शर्मनाक है”.


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महान तपस्विनी गांधारी आगे कहती हैं “अगर युद्ध का परिणाम पता था तो तुम इसे टाल भी सकते थे, क्यों इतने लोगों की हत्या होने दी? मैंने आपसे कई बार अनुरोध किया कि इस विनाश को होने से रोक लो लेकिन आपने एक नहीं सुनी. अपनी माता देवकी से पुछो कि पुत्र के खोने का गम क्या होता है”?


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गांधारी की बाते सुनकर भगवान श्रीकृष्ण मुसकुरा रहे थे. श्रीकृष्ण का यह रूप देख गांधारी हैरान थी तथा उनका गुस्सा और बढ़ गया. उन्होंने कहा “अगर मैंने भगवान विष्णु की सच्चे मन से पुजा की है तथा निस्वार्थ भाव से अपने पति की सेवा की है, तो जैसा मेरा कुल समाप्त हो गया, ऐसे ही तुम्हारा वंश तुम्हारे ही सामने समाप्त होगा और तुम देखते रह जाओगे. द्वारका नगरी तुम्हारे सामने समुद्र में डूब जाएगी और यादव वंश का पूरा नाश हो जाएगा”


भगवान श्रीकृष्ण को शाप देने के बाद माता गांधारी की आंखे बंद हो गई और क्रोध की अग्नि भी शांत हो गई. वह भगवान श्रीकृष्ण के कदमों में जा गिरी. श्रीकृष्ण ने मुस्कुराते हुए गांधारी को उठाया और कहा “‘माता’ मुझे आपसे इसी आशीर्वाद की प्रतीक्षा थी, मैं आपके शाप को ग्रहण करता हूं”. हस्तिनापुर में युधिष्ठिर का राज्याभिषेक होने के बाद भगवान श्रीकृष्ण द्वारका चले गएं.



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ऋषि मुनियों का शाप

विश्‍वामित्र, असित, ऋषि दुर्वासा, कश्‍यप, वशिष्‍ठ और नारद आदि बड़े-बड़े ऋषि विभिन्न जगहों की यात्रा करने के बाद भगवान श्रीकृष्ण और उनके बड़े भाई बलराम से मिलने के लिए द्वारका पहुंचे. वहां श्रीकृष्ण के भक्त इन ऋषि मुनियों का आदर सत्कार करना तो दूर उन्हें अपमानित करने लगे.


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एक बार तो श्रीकृष्ण और जाम्‍बवती नंदन साम्‍ब को स्‍त्री वेश में सजाकर इन ऋषि मुनियों के पास ले जाया गया और उनसे पूछा गया- “ऋषियों, यह कजरारे नैनों वाली बभ्रु की पत्‍नी है और गर्भवती है. यह कुछ पूछना चाहती है लेकिन सकुचाती है. इसका प्रसव समय निकट है, आप सर्वज्ञ हैं. बताइए, यह कन्‍या जनेगी या पुत्र”. ऋषियों से मजाक करने पर उन्‍हें क्रोध आ गया और वे बोले, “श्रीकृष्‍ण का पुत्र साम्‍ब वृष्णि और अर्धकवंशी पुरुषों का नाश करने के लिए लोहे का एक विशाल मूसल उत्‍पन्‍न करेगा. केवल बलराम और श्रीकृष्‍ण पर उसका वश नहीं चलेगा. बलरामजी स्‍वयं ही अपने शरीर का परित्‍याग करके समुद्र में प्रवेश कर जाएंगे और श्रीकृष्‍ण जब भूमि पर शयन कर रहे होंगे, उस दौरान जरा नामक व्याध उन्‍हें अपने बाणों से बींध देगा”. एक अन्य कथा में ऐसा माना जाता है कि यह शाप ऋषि दुर्वासा ने अपमानित करने के बदले यदुवंशी बालकों को दी थी.



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मुनियों की यह बात सुनकर वे सभी किशोर भयभीत हो गए और ऋषियों से क्षमा मांगी. उन्‍होंने तुरंत साम्‍ब का पेट (जो गर्भवती दिखने के लिए बनाया गया था) खोलकर देखा तो उसमें एक मूसल मिला. यादव और ज्यादा घबरा गएं. उन्होंने यह बात राजा उग्रसेन सहित सभी को को बताई. उग्रसेन ने मूसल का चूरा-चूरा करवा दिया तथा उस चूरे व लोहे के छोटे टुकड़े को समुद्र में फिंकवा दिया जिससे कि ऋषियों की भविष्यवाणी सही न हो. इस घटना के बाद द्वारका के यादव सबकुछ भुल गए थे.


लेकिन जिस लोहे के टुकड़े को समुद्र में फेंका गया था उसे एक मछली निगल गई और चूरा लहरों के साथ समुद्र के किनारे आ गया और कुछ दिन बाद एरक (एक प्रकार की घास) के रूप में उग आया. मछुआरों ने उस मछली को पकड़ लिया. उसके पेट में जो लोहे का टुकडा था उसे जरा नामक ब्‍याध ने अपने बाण की नोंक पर लगा लिया.


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शाप का असर

द्वारका में मदिरा का सेवन करना प्रतिबंधित था लेकिन महाभारत युद्ध के 36 साल बाद द्वारका के लोग इसका सेवन करने लगे. लोग संघर्षपूर्ण जीवन जीने की बजाए धीरे-धीरे विलासितापूर्ण जीवन का आनंद लेने लगे. गांधारी और ऋषियों के शाप का असर यादवों पर इस कदर हुआ कि उन्होंने भोग-विलास के आगे अपने अच्छे आचरण, नैतिकता, अनुशासन तथा विनम्रता को त्याग दिया.



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एक बार यादव उत्सव के लिए समुद्र के किनारे इकट्ठे हुए. वह मदिरा पीकर झूम रहे थे और किसी बात पर आपस में झगड़ने लगे. झगड़ा इतना बढ़ा कि वे वहां उग आई घास को उखाड़कर उसी से एक-दूसरे को मारने लगे. उसी ‘एरका’ घास से यदुवंशियों का नाश हो गया. हाथ में आते ही वह घास एक विशाल मूसल का रूप धारण कर लेती. श्रीकृष्‍ण के देखते-देखते साम्‍ब, चारुदेष्‍ण, प्रद्युम्‍न और अनिरुद्ध की मृत्‍यु हो गई. इस नरसंहार के बाद भगवान श्रीकृष्ण ने इसकी जानकारी हस्तिनापुर के राजा युधिष्ठर को भिजवाई और अर्जुन को द्वारका भेजने के लिए कहा. श्रीकृष्ण के बुलावे पर अर्जुन द्वारका गए और वज्र तथा शेष बची यादव महिलाओं को हस्तिनापुर ले गए.


भगवान श्रीकृष्ण का अंतिम समय

इस घटना के बाद बलराम ने समुद्र में जाकर जल समाधि ले ली. यह जान भगवान श्रीकृष्ण भी उनके समाधि लेना चाहता थे लेकिन बलराम की तरफ से कोई प्रतिक्रिया नई आई.



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भगवान श्रीकृष्ण महाप्रयाण कर स्वधाम चले जाने के विचार से सोमनाथ के पास वन में एक पीपल के वृक्ष के नीचे बैठ कर ध्यानस्थ हो गए. तभी जरा नामक एक बहेलिए ने वन में प्रवेश किया और भूलवश भगवान श्रीकृष्ण को हिरण समझकर विषयुक्त बाण चला दिया, जो उनके पैर के तलुवे में जाकर लगा और भगवान श्रीकृष्ण स्वधाम को पधार गए. इस तरह गांधारी तथा ऋषियों के शाप से समस्त यदुवंश का नाश हो गया और कृष्ण के देहांत के बाद द्वापर का अंत और कलियुग का आरंभ हुआ.


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